कठिन समय ने खाल उतारी ।
ख़ाक विरासत थी पुरखों की
आग समझ जो हमने धोंकी
लपट कहाँ उड़ गई न जाने
खोज अनवरत अब भी ज़ारी ।
मिले मज़ूरी जीने-भर की
लची कमर असमय जाँगर की
मेहनत का फल मिले उसे क्या
जिसका खेत न खेतीबारी ।
दबा और कुचला हरिबन्दा
बूढ़ा बाप हो गया अन्धा
तेल दिये का कब तक चलता
कर्कट ने लीली महतारी ।
रोग-शोक-दुख, दवा न दारू
पकड़े खाट गई महरारू
गूँगा और अनाथ हुआ घर
बिछुड़ गए सब बारी-बारी ।
कैसे-कैसे पापड़ बेले
बचे समर में निपट अकेले
सुधियाँ धुलीं भविष्य बुताना
साँसत में है जान हमारी ।
कठिन समय ने खाल उतारी ।