Last modified on 15 मई 2010, at 12:20

खेलता हुआ आदमी / लीलाधर मंडलोई

एक तिलिस्‍म है जिसमें पांव रखते ही
धरे रह जाते हैं कानून-कायदे
सिकुड़ने लगता है वह अजब डर में

घूरता यत्‍नपूर्वक चीजों को
भर उठता ठिठक से जरूरतों के लिए
जेब में पड़ा अकेला सूरज
डूबता अवमूल्यित
इतना अंधेरा बाहर
कि खरीद ले अधिक बरामद की शैली

इतनी कामयाब रपट
कि मुख्‍यमंत्री दबिश के अभिनय में
गायब होता वो सब धड़ल्‍ले से
गुजारा दूभर कि लोग आदत गुलाम

पत्‍नी से कैफियत मुमकिन
बच्‍चों के सामने झूठ बोलते गिरफ्तार
पिता होने का ऐसा अनुभव
कि झुकतीं शर्म की जगह आंखें लाचारी में

रोज करता ईजाद बहाने
जागते हुए नींद का कुशल अभिनय
प्रतिवाद की कारगर शैली और
खबरों का इतना सटीक विश्‍लेषण
कि भर उठता स्‍वयं आश्‍चर्य से
बोलना अपने आपसे मिला विरासत में
कि इस आदत की कमजोरी ऐसी
पकड़ा जाता बोलते हुए नींद में

'ढूंढों होगा वह कहीं आत्‍मा में
रूपए का दस सेर
और खुशबू होगी कहीं चेतना में
मिठास होगी बची जुबान पर
और हां वो सब स्‍वाद
भागते हो जिनके पीछे पागलों से'
बड़बड़ाता पारंपरिक दार्शनिक वाक्‍य
या देता दिलासा अपने आपको
'धोखा है चीजों का मायावी संसार'

अकलदाढ़ उगती है लम्‍बे अवकाश में
जागती प्रतिकूलताओं में अपनों के विरूद्ध
कि आदमी की आत्‍मा करती है पैरवी
कि आदमी का संदेह जागता है बाजार में
कि आदमी कोसता है राजा को सरेआम

अपने गढ़े विश्‍वासों से खेलता है जिद में
और सामने वाली की अंगुली उठते ही
आउट हो जाता है आदमी