जितना उदग्र होता जाता हूँ मैं
उस के लिए
उतना वह खेलती जाती है
मेरे साथ :
कभी रूठती, कभी मुसकाती
कभी छेड़ती मुझे ख़ुद
कभी विरक्त मुझ से
अपने में डूब जाती हुई
कभी अपने दुख में मेरी उदासी पर
देती दिलासा मुझ को
हर भंगिमा पर खेल है उस का
उदग्र करता जो जाता
और भी मुझ को—
कितना भी खेले वह मुझ से
पर कभी खोलती नहीं
अपने को
हर कविता होकर रह जाती है
कहानी केवल
खेल हो जाने की मेरे
—मेरी उस भाषा की नहीं
जिस से भेंटने खुल कर
आकुल, उदग्र हूँ मैं
जाने कब से ।
—
1 फ़रवरी 2010