जब भी मैंने अपनी जड़ को खोदना चाहा
होने लगी अश्कों की बारिश
मजैक किये हुए फर्श में
दबी हुई मुस्कान
दहाड़ें मार रोने लग पड़ी
बता अय माँ …. !
मैं किस तरह पहचानू
अपनी जड़ को …. ?
कभी -कभी सोचती हूँ
यह बंद खिड़की खोल कर
तोड़ लूँ फलक से दो -चार तारे
चुरा कर चाँद से चाँदनी
सजा लूँ
अपनी उजड़ी हुई
तकदीर में ….
झूठ , फरेब और दौलत की
नींव पर खड़ी
इस इमारत से
जब भी मैं गुजरती हूँ
सच की डोर से
लहू -लुहान हो जाते हैं पैर
फूलों पर पड़ी
शबनम की बूंदें
आंसू बन बह पड़ती हैं
बता अय माँ …!
मैं किस तरह चलूं
सच की डोर से … ?
मैं ऋणी हूँ तेरी
जन्मा था तूने मुझे
बिना किसी भेद के
सींचा था मेरी जड़ को
प्यार और स्नेह से
पर आज बरसों बाद
जब मैंने अपनी जड़ को
खोदना चाहा
होने लगी अश्कों की बारिश
मजैक किये फर्श में
दबी हुई मुस्कान
दहाड़ें मार रोने लग पड़ी
बता अय माँ …. !
मैं किस तरह पहचानू
अपनी जड़ को …. ?