बाहर सब है भरा भरा-सा
मगर शून्य है बहुत बड़ा-सा
मेरे भीतर
घेर रही है एक उदासी
बेचैंनी एक बहुत दिनों से
या युगों से शायद
फैल रही है मेरे भीतर
घर है
पर घर की तलाश है
सब अपने है
पर अपनों को खोज रही हूं
मैं जो दर्पण देख रही हूं
क्या उसमें मेरी सूरत है
अपनी सीरत खोज रही हूं
सब है गुजिश्ता
‘आज’ नहीं है
नाम है फिर भी
‘नाम’ नहीं है
सब है खाली
और घुटन है मेरे भीतर
और घुटन ये दिक-दिगन्त है
खुद को खुद में खोज रही हूँ