[सुभाष बोस के प्रति]
जीवन का दिन बीत चुका था,
छाई थी जीवन की रात,
किंतु नहीं मैंने छोड़ी थी
आशा-होगा पुनः प्रभात।
काल न ठंडी कर पाया था,
मेरे वक्षस्थल की आग,
तोम तिमिर के प्रति विद्रोही
बन उठता हर एक चिराग़।
मेरे आँगन के अंदर भी,
जल-जलकर प्राणों के दीप,
मुझ से यह कहते रहते थे,
"मां, है प्रातःकाल समीप!"
किंतु प्रतीक्षा करते हारा
एक दिया नन्हा-नादान,
बोला, "मां, जाता मैं लाने
सूरज को धर उसके कान!"
औ’ मेरा वह वातुल, चंचल
मेरा वह नटखट नादान,
मेरे आँगन को कर सूना
हाय, हो गया अंतर्धान।
और, नियति की चाल अनोखी,
आया फिर ऐसा तूफ़ान,
जिसने कर डाला कितने ही
मेरे दीपों का अवसान।
हर बल अपने को बिखराकर,
होता शांत, सभी को ज्ञात,
मंद पवन में ही परिवर्तित
हो जाता हर झंझावात।
औ’, अपने आँगन के दीपों
को फिर आज रही मैं जोड़,
अडिग जिन्होंने रहकर ली थी
भीषण झंझानिल से होड़।
बिछुड़े दीपक फिर मिलते हैं,
मिलकर मोद मनाते हैं,
किसने क्या झेला, क्या भोगा
आपस में बतलाते हैं।
किन्तु नहीं लौटा है अब तक
मेरा वह भोला, अनजान
दीप गया था जो प्राची को
लाने मेरा स्वर्ण विहान।