संदर्भ बांगलादेश
नहीं, आपदधर्म नहीं,
युद्ध इस दौर में
एक ज़रूरी कर्म बन गया है
फूलों से लपटें उठने लगी हैं
ग़र्म हो गई हैं बर्फ़ीली चोटियाँ
नदियाँ खौलने लगी हैं।
रक्त के छींटे फ़ैलते जा रहे हैं इतिहास के पन्नों पर
लाल करते हुए साहित्य और कला को
ख़ून बह रहा है
एक वाज़िब ख़ौफ़नाक भाषा का
जन्म हो रहा है।
मुक्ति के लिए छटपटाता हुआ धरती का एक्टुकड़ा
जिस्म की सच्ची और पाक और आख़िरी आवाज़ में
क्या कह रहा है?