ज़ेहन में रेंगते रहते हैं
सुबह ओ शाम
काफिले
बड़े बेहिस से
मुसलसल
जारी हैं सिलिसले
पिघलता जा रहा है
हौसला-दर-हौसला
मजाल फिर भी
जमीं पर पांव धरें?
ढीठ इतनी कि
छुड़ाये कोई कैसे दामन
कोई कैसे भला बुहार दे
मन का आंगन
सारी जद्दोजहद को धता बतायेंगी
साथ सांसों तलक निभाएंगी
ख्वाहिशें भी अजीब होती हैं।