गंगाराम !
तुम कहाँ मरने वाले थे
पुलिस की गोली से ?
तुम्हें तो मृत्यु ने
ले लिया था आकस्मिक अपनी गोद में
जिसके सामने हर कोई मौन है मगर तुम सदैव
इस मौन से अजेय संवाद करते रहे
तुम्हारा अजेय संवाद
आज भी बहस करता है
उनके गिरेबान से
जब भी वो
कदम उठाते हैं तुम्हारे देश की ओर ।
गंगाराम !
तुम्हारे मरने पर
नहीं झुकाया गया तिरंगा
नहीं हुआ सरकारी अवकाश
और न ही बजाई गई
शोकगीत के धुन
तुम्हारे बंधुओं के अलावा
किसी का घर अंधेरा नहीं हुआ
तुम्हारे मरने से ही ऊँचा हो सकता था
देश का मान
बढ़ सकती थी उसकी चमक
विज्ञापनों में वे कह सकते थे
अपने प्रोडक्ट का नाम ।
गंगाराम !
तुम मरे ऊँचे आसनों पर बैठे
लोगों की काग़ज़ी-फाँस से
जहाँ हाशिए पर रखे गए हैं
तुम्हारे लोग
देशांतर है जहाँ
तुम्हारे ग्लोब का मानचित्र
तुम्हारी आखरी तड़प ने
उनके सफ़ेद काग़ज़ों पर कालिख पोत दी है
मरते हुए भी हुए
देशी हितों के अख़बार निकले
गंगाराम !
तुम कहाँ मरने वाले थे
पुलिस की गोली से ?
तुम्हें तो दुश्मनों की सेना भी
खरोंच नहीं पाई थी सीमा पर।