अंग-अंग में है लोक-पावन प्रसंग भरा,
रूप अवलोकनीय रंग बहु न्यारा है;
तरल तरंग में हैं मंजु भावनाएँ बसी,
संचित विभूति में लसित भाव प्यारा है।
'हरिऔधा' अंक अलौकिकता निकेतन है,
कमनीय कला कांत कलित किनारा है;
सारा मलहारी सतोगुण का सहारा महा,
सुधा-से सरस गंगा तेरी रस-धारा है।
भारत-धारा में भरी ऐसी भव-भावनाएँ,
जिससे विभूतिमान बना भिखमंगा है;
काल-अनुकूल लगे कूल की कलित वायु
ललित विचारवाला बनता लफंगा है।
'हरिऔधा' देखे देव-दारिका-सी दिव्य भूति
दबता दुरंत यमदूत-दल-दंगा है;
भूतल की रंगा रंग रंजनाओं-से है लसी,
पावन-प्रसंगा गंगा तरल-तरंगा है।
पूजन-भजन कर कुजन सुजन बने,
भारत का जन-जन जानता है इसको;
भव में भवानी-पति-सा ही भूतिमान किया,
भाव से भरितभावना दे जिस-तिसको।
'हरिऔधा' सगर-सुअन का सँवारा जन्म,
तारा उसे, कोई तार पाता नहीं जिसको;
सुधा को उधार वसुधातल-सहारा बनी,
सुरसरि-धारा ने सुधारा नहीं किसको?
शंभु के गरल की गरलता न दूर होती,
सहज तरलता न सिंधु की निबहती;
हिमवान महिमा-निधान बन पाता नहीं,
शुचिता न लोक में महत्ता पाती महती।
'हरिऔधा' पावनता मिलती पाताल को न,
भूतल में भरित अपावनता रहती;
करते असुरता असुर के समान सुर,
सुरसरि-धारा जो सहारा दे न बहती।
पूत सरि-धारा की सफल भूत साधाना है,
सुर-पुर-धाम की मनोरम निसेनी है;
पावन है परम अपावन मनुज-मन,
सरस, सुहावन, सकल सुख-देनी है।
'हरिऔधा' लाल, सित, असित विकासमयी
भारत-वसुंधारा की विलसित बेनी है;
त्रिदिव त्रिदेव-सी पवित्रत-निकेतन है,
त्रासिनी त्रिताप की त्रिलोक में त्रिबेनी है।
सुरसरि-धारा है उपासना सतोगुण की,
सब सुख-सौधा की अलौकिक निसेनी है;
कलित कलिंद-नंदिनी-सम सुकेलिमयी
घन रुचि तन की समाधि सुख-देनी है।
'हरिऔधा' लोक-अनुरंजनी सुअनुरक्ति,
शारदा-सी पाहन कुछावन की छेनी है;
सिकता-विधायिनी है तामस रसिकता की,
मानव की पूत मानसिकता त्रिबेनी है।