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गंगा के पास / अनिमेष मुखर्जी

दूर कहीं से खड़ा
देखता हूँ
ढलते सूरज की फालसई रोशनी में
तुम्हारे विस्तृत आँचल को
वो आँचल
जिसने देवव्रत को भीष्म बनाया
भगीरथ की साधना और हिमालय की वेदना
को परिमार्जित कर
उस देव को
महादेव बनाया
पर, जब तुम्हारी स्वाति बूँदों के आचमन से
अंर्तमन को माँजने जाता हूँ
तो अँजुरी भर जल में
हृषिकेश की दिव्यता
और
दशाश्वमेध की मंगला आरती के नाद की जगह
तुम्हारी घुटी हुई चीखें
और
तु6हारे उद्धार के खोखले नारों के
अश्रुओं का लवण मिलता है
और तभी किसी को
कोई टूटी मूरत, सूखे फूल, सीवेज नालों
का अर्पण तुम में कर
बिसलरी को
चरणामृत-सा चखते देखता हूँ
तो मेरी जर्जर श्रद्धा का
श्राद्ध भी हो ही जाता है।