मगही लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
गंगा रे जमुनवाँ के रेतिया<ref>रेत</ref> मोतिया उपजायब हे।
गंगा रे जमुनवाँ के रेतिया, सोनवाँ उपजायब हे॥1॥
जब मैं जनतों कवन बरूआ, तुहूँ पंडित होयबऽ हे।
तुहूँ बराम्हन होयबऽ हे।
कंचन थाल भराइ के, सोनवाँ भीखी<ref>भिक्षा। उपनयन के अवसर पर बालक ब्रह्मचारी का वेष धरकर गुरुकुल जाने का स्वाँग रचता है। अध्ययन और गमन के खर्च के लिए आप्त गुरुजनों से एक पात्र में भिक्षा माँगता है। गुरुजन उसके पात्र में रुपये, अशर्फी आदि डालते हैं</ref> देयब<ref>दूँगी</ref> हे।
मोतिया भीखी देयब हे॥2॥
शब्दार्थ
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