न तो सोच पर ही नियंत्रण
न स्थितप्रज्ञ ही ज्ञान
प्रत्येक क्षण बीतने को तत्पर
दिन और रात
होड़ में
गुज़र जाने की अनवरत..
मास व वर्ष
कोई ऋतु भी नहीं टिकाऊ
फिर अस्तित्व मेरा ही
क्यों बाधित
एक गत्यावरोध से
अंकित हैं वे दृश्यबंध
मन-मस्तिष्क पर
जिए हैं जो सहस्राब्दियों से मैंने
दीवार पर टँगी घड़ी
क्यों सधी दृष्टि है गड़ाए मुझपर
समय की गतिविधि से
नहीं अब मेरा कोई वास्ता
तारे स्थिर हैं
आकाश भी निष्कम्प
या मेरी ही दृष्टि में
जम चुकी है बर्फ़