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गन्तव्य / अनुभूति गुप्ता

मैं
अनन्त यात्रा
पर हूँ
पग-पग पर काँटे बिछे हुए हैं
पैरों के छाले
नज़रअंदाज़ करती हुई
बढ़ रही हूँ
अपने गन्तव्य की ओर
अँधेरी गुफाओं के
मुँह से होते हुए आ रही हूँ
चट्टानों की ओर।

दूरी से चट्टानें
स्वभाव की सख्त लगती हैं
पास से,
लाचार-बेबस
खुरदरे तन को लिये खड़ी हंै।

बीच-बीच में
काले-काले बादलों का गरजना
तेज़-तेज़ हवाओं का बहना
यात्रा में बाधाएँ उत्पन्न करना
मन को विचलित-सा करता है।

परन्तु....
एक ओर से
बढ़ता हुआ प्रकाश
उम्मीद की किरण लाया है
पर्वतों के मुख पर-
चमकीली
गहराती धूप का
खिलता हुआ साया है।