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गम्भर (एक) / कुमार कृष्ण

पिछले साठ बरसों में
पी चुका हूँ मैं अनगिनत नदियाँ
खा चुका हूँ तमाम देशी-विदेशी खेत
सिखर दोपहर में बैलों के कन्धों से
हल और हेंगा उतार कर
जब शरीर माँगता है पानी
गुनगुनाने लगती है गम्भर<ref>पास से बहने वाली एक छोटी नदी, जिसका पानी हमारे घर तक आता है</ref> मेरे भीतर
धीरे-धीरे कहती है मेरे कान में
बस अब और नहीं बुझा सकती मैं तुम्हारी प्यास

बहुत मुश्किल है इस धरती को सींचना मेरे लिए
तमाम घड़ों से कह दो-
वे गाएँ मेरे लिए

अपना अन्तिम विदाई गीत
मुझे नहीं पता था-
तुम हो सकते हो कभी इतने क्रूर
मुझसे जीवन लेकर
कर दोगे समाप्त एक दिन मेरा जीवन
तुम्हारे दादा-परदादा नहीं थे कभी-
तुम्हारे जैसे स्वार्थी, निष्ठुर, अगम्भीर, अदूरदर्शी
मेरी हलकी सी आवाज़ पर-
दौड़े चले आते थे मेरे पास
निहारते थे मुझे लगातार

करते थे इबादत मेरी बार-बार
अपने दोनों हाथों से चलाती थी मैं उनके घराट<ref>पनचक्की</ref>
पहुँचाती थी उनकी अस्थियाँ सागर तक

तुमने नहीं ली कोई सीख कभी
मेरी बड़ी बहन सरस्वती से भी

लुप्त हो जाऊँगी मैं भी एक दिन उसी की तरह
पानी-पानी माँगते हुए
जब चले जाओगे तुम इस धरती से
तब कोई नहीं ले जाएगा तुम्हारी अस्थियाँ सागर तक
तुम बचाना चाहते हो यदि मनुष्यता
तो घड़े और घराट की तकलीफ़ से पहले
महसूस करो मेरी तकलीफ़
मत बाँधों मेरे हाथ और पाँव
बहने दो मुझे अपनी पुरानी ठसक के साथ
गुनगुनाने दो मुझे मानवता का गीत।