Last modified on 27 नवम्बर 2020, at 19:37

गर, हमारी खामोशियाँ / विजय सिंह नाहटा

गर, हमारी खामोशियाँ
हो जा रही चट्टान की तरह जड़वत
दीवार-सी अलंघ्य
तब;
अन्याय को तो होना ही है पहाड़-सा विराट
उसके सामने हमेशा ही रहे झुका सिर
औ' बंद ज़ुबान।
विरोध के हर खाली खाने में
भरते रहे संगठित मौन का बुरादा
जीवन जहाँ-जहाँ खंडित हुआ
 उस खोखली परत तक कहाँ पहुँच पाये
हमारे छिन्न भिन्न हाथ।
महज; उम्र टटोलती रही कामचलाऊ भंगुर सरोकार
जो घसीटकर ले आए इसे किसी दुःख से सुदूर
वंचनाओं के बीहड़ में
और हम रहे गैर जिम्मेदाराना
यह एक अपूरणीय क्षति थी
जीवन के लिए जीवन के पक्ष में निष्प्रभ होकर
कहीं चिर नींद सो गया था हमारा प्रतिरोध।
रात्रि के मौन में घुला हुआ आदमकद त्रासदी-सा
यह एक सितारा था जो अभी टूट कर गिरा
और इन्हीं जगहों पर हमारा सत्व झर-झर झरा
हम थे सही मायनों में
अपने भीतर के खंडहरों में अजनबी एक आवाज़
जो लौट-लौट आ जाती निष्फल पुकार
 ख़ुद को;
असम्बोधित-सी कोई अनजान चीत्कार
एक प्रहार लक्ष्य भटकता हुआ
अब तलक जो हुआ सो हुआ
अब जागता जगाता हूँ भीषण संवेग
जो मन की अदृश्य उपत्यकाओं में
कहीं खो गये घूमते बदहवास
टूट टूट गया जीवन रथ
चुंधियाये अश्व भूल गये असली पथ
इस नुक़सान की भरपाई के लिए
निकालता हूँ अपना सकल पूंजीभूत
इस घाटे के अजूबे कारोबार की
लिखता हूँ नयी पटकथा
हर असंगति पर दूंगा ललकार काल के द्वार
गूंजती जाएगी एक विजय तान
क्षितिज के उस पार।