हर्फ़ जो मैंने उतारे थे कभी पन्नों पर,
बडी बेचारगी से ताक रहे हैं मुझको...
सोच मैं अपनी बदल पाऊँ,
ये मुम्किन ही नहीं,
वुजूद इनका अब मिटा दूँ,
वो भी ठीक नहीं,
हैं मानी खो चुके ये लफ़्ज़
पुराने अपने,
आज के फल्सफ़े नए हैं,
नई बातें हैं...
एक धुँधलाता हुआ कल है, सो भी जाता नहीं,
वहीं कायम है कशमकश भी, हालो-माज़ी में,
अब इस मजबूरी-ए-हयात का भी क्या कीजे,
करार मुझको किसी हाल में भी आता नहीं,
और फिर वक्त, कि आगे ही
निकलता जाए,
मेरी सुनता है कब ?
हाए, थमता है कब ?
चलूँ, न साथ में उसके जो अगर,
हाए, रुकता है कब ?
कोई चारा नहीं है तर्क-ए-तआलुक के सिवा,
इल्ज़ाम-ए-तौबा-शिकन से भी नहीं खौफ़ कोई,
मुसीबतों का मेरी
ये ही मुदावा होगा,
मेरा माज़ी मेरे
मौजूद से सिवा होगा...
मेरे माज़ी का
अकेले ही गुज़ारा होगा !
16-9-96