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गर्द ग़ुबार का इज़हार / विद्याभूषण

अरे ओ खजांची,
जब तुम्हारे सामने रखी होंगी
ति‍जोरी की चाबि‍याँ,
मगर वहाँ तक पहुँचने में
असमर्थ होंगे तुम्हारे हाथ,
चेक-बुक पड़ी होगा मेज़ पर
और दस्तख़त करते काँपेंगी उँगलि‍याँ,
जब छप्पन भोग की सजी हुई थाली से
जायकेदार नि‍वाले
नहीं कर सकोगे अपने मुँह के हवाले,
जब कभी प्यास से अकड़ा होगा हलक
मगर गि‍लास नहीं पहुँचेंगे होंठों तक,
तो सोचो कैसा होता होगा
लाचार ज़ि‍न्दगि‍यों का दुख-जाल !

अबे ओ थानेदार,
जब भूख से ऐंठती हों अंतड़ियाँ
और घर में आधी रोटी भी
मयस्सर नहीं हो,
न फ्रि‍ज, न लॉकर,
न दराज़, न ति‍जोरी,
न चेक-बुक, न नगदी,
और चूल्हा हो ठंडा, देगची हो खाली,
तो कैसे बन जाता है
कमज़ोर आदमी मवाली !

अजी ओ जि‍लाधीश !
कब तक कतार में झुके रहेंगे
ये शीश ?
बकरे की अम्मा कब तक मनाएगी ख़ैर,
जल में रह कर कैसे नि‍भे मगर से बैर !
जब भारी जुल्म-सि‍तम तारी हो,
सि‍र्फ़ ‍सि‍फ़र जीने की लाचारी हो,
ज़ि‍न्दा लाशों का हुजूम हो
गलि‍यों में, सड़कों पर,
और तमाम रास्ते हों बंद,
तब कहाँ जाएगी यह दुनि‍या
अमनपसन्द ?

जरा सुनो सरताज,
यह आज देता है कि‍स कल का आगाज़ ?
क्यों माँगने वाले हाथ
मज़बूरन बंदूक थाम लें ?
क्यों‍ मेहनतकश लोग
बेइंतहा ग़ुरबत का इनाम लें ?
बंधुआ अवाम को ज़ि‍ल्लत की जेल से
नि‍कलने के लि‍ए,
देश और दुनि‍या को बदलने के लि‍ए
क्या तज्वीज़ है तुम्हारे पास ?
ठोस ज़मीन पर चलो,
मत नापो आकाश ।