एक ग़ज़ल : गर ज़मीं ........
गर ज़मीं आशियाँ बनाने को-
तो फलक बिजलियाँ गिराने को।
किस तरह से कहें फ़साने को,
हर तरह उज्र है ज़माने को।
हमने चाहा है अश्क मिल जाए-
दर्द अपना कहीं छुपाने को।
उन गुलों को मसल दिया उसने-
जो मिले थे शहर सजाने को।
एक इंसान की ज़रूरत है-
प्यार का दीप फिर जलाने को।
जिसने बारिश की आहटें सुन लीं-
वो ही भागा है घर बचाने को।
कुछ तो उनमें वफ़ा रही होगी-
वो-जो आए हमें मनाने को।