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गवाक्ष पर्व / अमरेंद्र

गंगा का तट, चंपा का वन, शीतल मंद समीर,
पुनरनवी के साथ कर्ण है, फिर भी हृदय अधीर;
किस चिंता में रह-रह कर मन दिखता कभी उदास,
श्री से सुन्दर पुनरनवी जब बैठी उसके पास।

आज नहीं क्यों बाँध रहा है हारिल का संगीत,
ऐसी क्या शंका उठती है, कर जाती भयभीत।
कल से ही सब कुछ लगता है बना-बना-सा भार,
मन को बाँध नहीं पाता है पुनरनवी-शृंगार।

शिलाखंड पर दोनों बैठे रह-रह होते मौन,
आखिर क्या उठता है मन में, लगा रहा है रौन?
बोल उठी सौरभ के स्वर में पुनरनवी बेचैन,
दूर हो सके, दिन में ही जो घिर आई है रैन।

" नाथ, जान क्या मैं सकती हूँ, क्या था वह संदेश?
अब तक भी जो हिला रहा है मन को बन कर क्लेष।
किसका था संदेश, कहाँ से आया था वह दूत?
कुछ भी तो मैं समझ न पाती, कैसा दुख आहूत? "

" पुनरनवी, कहने ही वाला था मैं वह सब बात,
मेरे मन के शांत सलिल पर लहरों का उत्पात;
कुंजरपुर से आया था, वह दूत लिए संदेश,
घेर रहा है कुरुपति को फिर वहीं पुराना क्लेष।

" बीत गये बारह संवत्सर, बचा हुआ है, एक,
वह भी जो अज्ञात वास का, दिन ही कहाँ अनेक।
चिंता यही सुयोधन को है, क्या कुछ करे उपाय,
जिससे हो विपरीत समय यह, उस पर सदय-सहाय।

" लेकिन ज्ञात मुझे है, कुछ भी रहा नहीं अनुकूल,
राजसिंहासन के नीचे का टूट चुका है चूल।
वहाँ सुयोधन सोच रहा है, अवधि अभी है शेष,
फूट पड़ा है और वेग से उसके मन का द्वेष।

" नहीं चाहता पांडव लौटे; वन में करे प्रवास,
यह तो निश्चित राजधर्म का करना है उपहास;
अपने किए कर्म का पांडव भोग चुके जब ताप,
तब करने पर तुला हुआ क्यों कौरव-दल है पाप?

" यह अनीति है; धर्म-कर्म क्या? घोर नीचता, पाप,
हाय, सुयोधन लेना चाहे क्यों सर पर अभिशाप।
क्या जाने यह किस भविष्य की दहलाती पदचाप,
उड़ती हुई हवा के तन पर दिखती काली छाप। "

समझ सकी न पुनरनवी, कुछ खुली-अधूरी बात,
दिन के आँगन मंे बैठी हो पाँव पसारे रात।
इधर-उधर की बातों से मन हटा, खींच कर ध्यान,
पूछा, " आखिर क्या विषाद, जो डरी हुई मुस्कान?

" नाथ, बताओ सारी बातेंµक्या रहस्य, क्या राज?
क्यों पल्लव के बीच छुपे हारिल को घूरे बाज?
मन कैसा तो हुआ जा रहा, ऐसा कब था दीन!
शुष्क वृन्त पर पुष्प खिला, मकरंद-सुरभि से हीन। "

पुनरनवी का प्रश्न सुना तो कर्ण हुआ गंभीर,
लगा खोलने व्यथित हृदय को, रोके मन की पीरµ
" पुनरनवी, यह मोह राज का, सब इसका ही खेल,
दूर रखा है बंधु-बंधु को कब से जाने मेल।

" डर है यही सुयोधन को, जो पूर्ण हुआ वनवास,
फिर तो आधा राज रहेगा पांडव के ही पास।
शर्त यही है, जब तक बारह वर्षों का वनवास,
पांडव चाहे जहाँ रहंे, वे रहें दूर या पास।

" लेकिन जो अज्ञात वास का होगा अंतिम वर्ष,
वह तो किसी तरह भी संभव कहीं न होगा दर्श।
पुनरनवी, यह वर्ष तेरहवाँ, उसका अंतिम मास,
यही सुयोधन की चिंता है; उसका यह उपहास।

" और उसे लगता, पांडव का मत्स्यराज में वास
घूम रहे या छुपे हुए हैं विप्र बने या दास।
गौ की बात पितामह ने कर, दिया यही संकेत,
क्यों न जड़ें जमा सकता है तब शंका का प्रेत।

" एक प्रश्न है, आखिर किसने मारा है जीमूत,
मल्लयुद्ध में, जो लगता था महाबली का भूत;
फिर कीचक की मृत्यु, छुपी क्या रह सकती है बात,
इसीलिए तो यह हलचल है, ऐसा यह उत्पात।

" टूटेगा अज्ञातवास का व्रत, बिगड़ेगा खेल,
कसना चाहे और सुयोधन फिर से नयी नकेल;
पर है ज्ञात कहाँ यह उसको, उलट गया है चक्र,
कल्प, काष्ठा, फिर मुहुर्त्त, दिन, पक्ष, मास-गति-वक्र।

" इनमें फिर शशि और सूर्य की नई-नई गति, चाल,
अपनी ही गति से चलते हैं ग्रह-ऋतुओं के काल;
जिस दिन मिला सुयोधन का था मुझको यह संदेश,
मुझसे मिले पिता थे मेरे लिए विप्र का भेष।

" एक-एक कर सारी बातें बता गये थे तात,
रुके नहीं थे, रहे बोलते सारी-सारी रातµ
वृहन्नला की बात खुली, फिर सैरंध्री, फिर कंक,
कैसे बिता रहे हैं पांडव दिन को वहाँ निःशंक।

" कैसे कीचक का इक दिन फिर बोल उठा था पाप,
सैरंध्री का सुना तात से मन का शांत विलापµ
' सूर्यदेव मेरी रक्षा का अब तुम पर ही भार,
लुटने वाला है सतीत्व का मेरा यह संसार। '

" और तात ने भेज दिया था रक्षक, यम था काल,
पल की भी थी देर नहीं की; उलट गई थी चाल;
सैरंध्री पर लात पाप की भरी सभा के बीच,
कैसा चित्त हुआ था उस क्षण काल-घात से कीच।

" यह सब हुआ, हुआ था यह भी, जागा पांडव क्रोध,
खड़ा हुआ था वीर पुरुष के आगे पर अवरोध।
कृष्णा पर थी पड़ी लात, पर अर्जुन धारे धीर,
और वही सबकी आँखों में श्रेष्ठ, धनुर्धर, वीर (?)

" धर्मराज को भय इसका था, खुले कहीं न राज,
झपट पड़ा कीचक पर कोई अनुज अगर जो आज।
रोक दिया था संकेतों से, स्वयं भी धारे धीर,
सचमुच में पांडव के जैसा कौन धरा पर वीर (?)

" सिंहासन की रक्षा में हो जहाँ नारी का मोल,
जो विष का है, होगा कैसे वह अमृत का घोल!
धरती की शोभा, ममता का, करुणा का शृंगार,
धर्मराज के आगे ही कीचक का अत्याचार।

" नारी की इज्जत जाए तो जाए, पर न राज,
मुकुटों की छीना-झपटी में सिकुड़ी-सहमी लाज।
छत्राधारी को ज्ञात सभी कुछ, फिर भी उसका रक्ष,
दंड हाथ में लिए हुए लेता अनीति का पक्ष।

" उस शासन, उस छत्राधारी को लगे नहीं क्यों आग,
जहाँ कीचकों का गूँजा करता है कीचक-राग?
वह तो कृष्णा ही ऐसी थी, चुप न रही, न शांत,
मध्य निशा में भीम पास जा पहुँची व्याकुल, भ्रांत।

" जो-जो कहा भीम से उसने, कभी खुलेगी बात,
उसकी बातें सुनकर तो कैसे रोई थी रात।
कहा झूठ क्या कृष्णा ने जब दहक गई थी चोट,
मन को खोल दिया था उसने ले पीड़ा की ओट।

" किसी लोभ या भय से जो नारी का करे न मान,
वह कैसे हो सकता उसका स्वामी या भगवान?
अर्जुन से तो कहीं अधिक है भीम गुणी, गुणवान,
कीचक का कर प्राण-हरण जोगा कृष्णा का मान।

" इतना ही क्या, अर्थी पर कंपित कृष्णा का शोर,
वृहन्नला को डिगा सका न, सका ज़रा झकझोर;
तब अज्ञात वास का बँधन तोड़ भीम की आग,
उस मरघट से ले आया था सैरंध्री का भाग।

" भीम सही में पुरुष, इसे क्या कहने में संकोच,
देश, काल, नारी के हित में जाग्रत जिसका सोच;
जिसका है पुरुषार्थ प्रबल, क्या उसको डर या लोभ,
कहीं दिखे अपकर्म; उबलता उसका सोया क्षोभ।

" जगा नहीं जो पार्थ क्षोभ, तो क्या इसमें आश्चर्य,
नृत्य-गान में मुदित-भ्रमित-सा समाधिस्थ ब्रह्मचर्य!
दबा गया था नृत्य-द्यूत कृष्णा की करुण पुकार,
कौन लिखेगा नारी पर नर का यह अत्याचार?

" मुझ पर तो चुप रहने का है बहुत लगा आरोप,
कहना हो तो कहे मुखर हो, कृष्णा का सब कोप।
क्यों न भरोसा हुआ किसी पर एक छोड़ कर भीम?
उमड़ पड़ा था उस पर ही क्यों उसका मन निस्सीम?

" अस्त्राज्ञान के अहंकार में अर्जुन जितना लिप्त,
करुणा, दया, क्षमा से उसका कहाँ हृदय है दीप्त?
दीप्त अगर होता तो जलता क्या खांडव का लोक,
धूम रहा है धरा-व्योम पर नागवंश का शोक?

" इस अधर्म का कौन लिखेगा, हो तटस्थ इतिहास,
अग्निदेव का और पार्थ का हृदयहीन उपहास?
लेकिन उन बातों से अब क्या, जिसको लिए अतीत,
युग को लाँघ गया है कब का; कहाँ हार या जीत। "

इतना कह कुछ शांत हुआ नभ हेर रहा वसुसेन,
दिखता है सब कुछ ललाट से, फिर भी लगे, दिखे न।
यह देखा तो पुनरनवी ने पकड़ हृदय का तार,
बोल उठी, " किन बातों का यह कैसा उपसंहार?

" बात चली थी किसकी लेकिन जा पहुँचे किस ओर,
सचमुच मन के आवेगों पर किसका कब है जोर।
देख रही हूँ, अभी नाथ के भाव नहीं है शांत,
क्यों न चलें, अजगैविप्रस्थ पर, थके हुए हैं कांत"

" पुनरनवी, क्या याद दिलाया, जो धरती का स्वर्ग,
अंग सर्ग के साथ लगा हो ज्यों प्रत्यय-उपसर्ग।
तीर्थकलश जो सोमद्वीप है, ऋषि जद्दु का धाम,
मोक्ष, सिद्धि, निधि का आलय है, सबका यहाँ विराम।

" लेकिन अब क्या संभव है यह, समय नहीं अनुकूल,
इस वसन्त में गर्म हवा की चिंगारी-सी धूल;
सहमे हुए विहग उपवन में कल-कूजन न शोर,
भरी दुपहरी-सा लगता है एक पहर का भोर।

" पंचानन की धार विरल है, सिकुड़ी-सहमी छाँव,
भरा नगर गंगा माता का बना हुआ है गाँव;
कैसे सहन करोगी यह सब लेकर स्वाति देह
दूर-दूर तक कहीं नहीं है, नभ में उड़ता मेह। "

हुई अचंभित सुन कर ही वह बात उलट-विपरीत,
भरी निशा में उभर रहा क्यों भैरव का संगीत?
लेकिन सहज रही ही कुछ क्षण बंद किए हृद-द्वार,
और लगी फिर देने शंकाओं को वह आकार।

" नाथ, कर रहे कैसी बातें, यह फागुन का मास,
क्या मन सचमुच ही उदास है, या करते उपहास?
कहाँ संकुचित गंगा के तट या पंचानन-धार?
पुष्पों-कलरव से कितना तो खिला-खिला संसार!

" देखो न उस नील झील में खिले कमल-दल श्वेत,
रजत धूली-सी चमक रही है गंगा तट की रेत।
अभी दिखा था मुझे वहाँ पर उड़ता एक चकोर,
उड़ा, न जाने किधर गया, बस मचा हुआ है शोर। "

बातें सुनकर कर्ण अधर पर खिला कुसुम का हास,
खड़ा दिखा मधुमास वहीं पर बहुत निकट ही पास।
हँस कर कहा कर्ण ने उससे, " प्रिये, तुम्ही मधुमास,
तुम्हीं सिद्धि हो, निधि हो मेरी, आस और विश्वास।

" इतनी बड़ी अंग की सीमा, सागर तक विस्तार,
सचमुच कठिन सँभाले रखना था शासन का भार;
लेकिन तुमने किया। धन्य हूँ। तुम पर ही गृहकाज,
जाना होगा मुझे हस्तिपुर, छोड़ तुम्हीं पर राज।

" ताकि सुयोधन का पूरा हो सके गुप्त अभियान,
लेकिन कहाँ रहा है उसको वक्र काल का ध्यान।
" जो अपनी ही चिंता में डूबा रहता दिन-रात,
उसे साँझ भी लगती है; ज्यों, उगता हुआ प्रभात।

" मन का मोह क्रोध-सा उठता, हरता बुद्धि-विवेक
जिसको बस अपनी ही मति की मिलती रहती टेक।
सोचो, जिसके साथ लगा हो भीष्म-द्रोण का ज्ञान,
जिनको पाकर भारत भर को गौरव है, अभिमान।

" जिनके सत से आलोकित है शक्ति-ज्ञान-आलोक,
जिन्हें देखकर सहमा रहता अँधकार का ओक;
तब भी अगर सुयोधन की मति बनी हुई है भ्रांत,
रश्मि-बलय को समझ रहा है चक्कर खाता ध्वांत;

" तो समझो कुरुवंश-श्रेष्ठ का भाग्य नहीं अनुकूल,
करता रहा सुयोधन ही क्यों बार-बार है भूल। "
कह कर मौन हुआ जैसे ही कर्ण, नेत्रा कर बंद,
फूट पड़े थे पुनरनवी-अधरों से खुरचे छंदµ

"फिर क्यों साथ निभाने को यूँ बँधे हुए हैं नाथ?"
" इसीलिए क्या द्रोण-भीष्म तक सब उसके ही साथ।
इससे भी बढ़ हस्तिराज के मित्रा, मेरे ही तात,
निभा रहे हैं दशकों से जो कुंजरपुर का साथ!

" अधिरथ के घर रहा पला, पाया शिक्षा का दान,
तात नहीं होते तो क्या मैं पाता वह सम्मान।
विश्वजीत का पुत्रा कर्ण तो अधिरथ का भी पूत,
इसीलिए तो, पांडव की आँखों में मैं हूँ सूत।

" मिला किसे मैं, पला कहा फिर, कथा ज्ञात-अज्ञात,
समझो विवश कहाँ से मैं हूँ अगर सुयोधन साथ;
पर पांडव क्या घुले हुये हैं, अमृत के ये पूत?
क्यों आँखों में चुभता रहता एक अकेला सूत?

" जहाँ कहीं अन्याय-अनीति का दिख जाता है खेल,
जोड़ लिया जाता है तत्क्षण मेरा उससे मेल।
हस्तिराज के सम्मुख अधिरथ, मेरे तात विनीत,
समझो जोग रहा हूँ मैं भी पितृधर्म की रीत।

" पुनरनवीे, पर क्यों तुम होती ऐसे दीन-मलीन?
किस चिंता में डूब गई तुम, कैसी व्यथा नवीन?
समझ गया मैं, कैसी शंका, क्यों हो हुई अधीर,
गौवों के उस हरण-कार्य में मैं ही नहीं सुवीर।

" भीष्म-द्रोण से लेकर इसमें शामिल है अतिकर्ण,
आगे होंगे भीष्म-द्रोण, तो पीछे होगा कर्ण। "
इतना कह कर हँसा कर्ण, फिर कुछ-कुछ लगा अधीर,
विद्युत गति से छिपा गया पर मन की उठती पीर।

कहीं दिखा न व्याकुलता का किंचित औन-न-पौन,
कहने लगा कर्ण फिर आगे क्षण भर साधे मौनµ
" पुनरनवी, अब बोलो तुम ही, क्या अर्जुन, क्या भीम,
जहाँ भुजाएँ ताने होगा विक्रम अतुल, असीम!

" कुछ भी नहीं वहाँ होना है, मन को करो न भ्रांत,
उद्वेलित अपने इस हृढ को अब तो कर लो शांत!
जो कुछ होगा अभिनय होगा, रंगमंच का युद्ध,
खुले गगन के नीचे रूपक-प्रकरण रूप विशुद्ध।

" समरभूमि का दृश्य सजेगा, फिर कौरव-उच्छेद,
मत्स्यराज क्या कुछ समझेंगे, यह रहस्य, यह भेद।
अर्जुन को ही मिला हुआ है बस मोहन का अस्त्रा,
जिसको काट नहीं सकते हैं मिलकर भी सौ शस्त्रा।

" भले समर यह जैसा भी हो, होगा आखिर युद्ध,
छूटेंगे जब वाण धनुष से, होगी गति तो रुद्ध।
वैसे में तो एक राह ही, मोहन का संधान,
क्या अटूट है नियम नियति का निश्चित यहाँ विधान।

" लगता है, यह भी है कोई सोची-समझी चाल,
जिससे फिर मोहन की कोई नहीं गलेगी दाल।
एक बार, बस एक बार यह अस्त्रा करेगा काम,
फिर तो यह जैसे कि सिंह का पड़ा हुआ हो चाम।

" घटित हो रहा होगा जब यह, तभी खुलेगा भेद,
पूर्ण हुआ अज्ञातवास है, बोलेगा यह वेद;
लेकिन यह भी हो सकता है, घट जाए विपरीत,
कौन कहंे यह हार किधर है और किधर है जीत?

" सत्य निकल आए वह सब कुछ, अब तक लगे प्रपंच,
और रुधिर से रंग जाए फिर अभिनय का वह मंच।
पुनरनवी, अब जो कुछ भी हो, मुझे सभी स्वीकार,
गिरि को विचलित क्या कर लेगा, पवन-नृत्य का भार?

" चिंता है तो इसी बात की, छूटेगा फिर देश,
जाने कहाँ-कहाँ ले जाए अब का यह संदेश!
पता चला न, कैसे बीते सुख के बारह वर्ष,
छूट रहा है मुझसे मेरे नभ-आंगन का दर्श।

" लौट आऊँगा, यथाशीघ्र मैं, चिंता नहीं परंच,
कितने दिन चलने वाला है छल का घोर प्रपंच!
तब तक तुम पर छोड़ रहा हूँ अंगदेश का भार,
पुनरनवीे, मैं भूल सकूँगा कभी नहीं उपकार।

" अधिरथ मेरे अभिभावक, उनकी भी दिखती चाह,
धृतराष्ट्र उनके तो ठहरे नहीं मित्रा ही; नाह।
जिस बंधन में बँधा हुआ मैं, रह जाता हूँ मौन,
इतना निबल बना जाता है मन में बैठा कौन?

" लेकिन यह तो समय नहीं है कुछ गुनने का काल,
उधर सुयोधन मन में पाले भय-शंका के व्याल।
लौटें अब हम दुर्ग, निशा भी होने को है शेष,
देर नहीं, होगा किरणों की पलकों का उन्मेष।

" जाग रही है सभी दिशाएँ, हैं सचेत दिक्पाल,
भले नींद में शांत-शिथिल हैं चम्पा के गिरि-ताल।
पंचानन को नींद कहाँ है, कहाँ हवाएँ शांत,
गूँज रहा जिनकी ध्वनियों से अलसाया यह प्रांत।

" मणि-दर्पण से बढ़े हुए कुछ, फैले जिनके ताल,
कैसे झुके भला उस भू का भाग्य, दीपता भाल।
सुधि आते ही अंगदेश की कुंजरपुर भी अंग,
इस चम्पा का चढ़ा हुआ है मुझ पर ऐसा रंग।

" पुनरनवी, तुम उसी देश की रानी, अमृतधार,
टिका हुआ है तुम पर मेरे प्राणों का संसार;
मेरा क्या इतिहास तुम्हारे बिन; सूना-सा प्रांत,
मधुराका नारी ही बनती, पुरुष लगे जब ध्वांत। "

भीग गई है पुनरनवी ऐसा बरसा है स्नेह,
नभ को घेरे बैठ गया है अनचोके ही मेह।
सुना कर्ण के अमृत को तो दबी प्रेम के भार,
कहा, " कहो अब कहाँ छिपाऊँ मणियांे के उपहार?

" धन्य-धन्य हूँ, नाथ, वही जो अंगदेश के प्राण,
जिनसे दृष्टि, त्वचा, रस पुलकित, शब्दसुधा के घ्राण।
वही साथ है मेरे, मेरा धन्य-धन्य है भाग,
अंग-प्रजापति के यश-सा ही फैले यह अनुराग! "

सिहरा समीर, चटकी किरणें फूटे कुसुम समेत,
निद्रालस है भले नगर, पर गंगा कहाँ अचेत।
रवि-ऊषा के चरण बढ़े, जागा कलरव का देश,
राग झिंझोटी के स्वर में है अब भैरव का भेष।
जाने कब पूरब में उतरा रवि का रथ चुपचाप,
चम्पा के चेहरे पर अंकित नीलकंठ की छाप।