गहन इस रजनी में
रोगी की धुँधली दृष्टि ने
देखा जब सहसा
तुम्हारा जाग्रत आविर्भाव,
ऐसा लगा, मानो
आकाश में अगणित ग्रह-तारे सब
अन्तहीन काल में
मेरे ही प्राणों कर रहे स्वीकार भार।
और फिर, मैं जानता हूं,
तुम चले जाओगे जब,
आतंक जगायेगी अकस्मात्
उदासीन जगत की भीषण निःस्तब्धता।
कलकत्ता
गहन रात्रि: 12 नवम्बर, 1940