उठी कहीं से
गमक ढोल की
गहरी-गहरी थाप
पड़ रही थी अम्बर पर
धीरे-धीरे खिसक रहे थे
महाद्वीप, उठते पहाड़
मन गहराता था
कड़ी धूप में
भँवर डालती चील
एक भय लहराता था
मेरुदण्ड में
उठता था भूचाल
कांपता अनुभव थर-थर
गहरी-गहरी थाप
पड़ रही थी अम्बर पर
अतल अपार अथाह
दुपहरी,
निपट अकेली सृष्टि
स्वयं को ढूढ़ रही थी
तपता था मृगशिरा
आम में रस भरता था
किसी जुलाहे जैसा जीवन
बुनता था अपना वितान
निर्बाध निरन्तर
गहरी-गहरी थाप
पड़ रही थी अम्बर पर
एक बूँद में
महाकाश भरता प्रसार था
सूख रहा था कंठ
और निर्जल थी वाणी
स्मृति में बजता, जल कल-कल
धरती भरती साँस
खेलती लहर, लहर पर
गहरी-गहरी थाप
पड़ रही थी अम्बर पर
एक गहन अनुनाद
दूर तक गूंज रहा था
तुम रचना की
प्रथम पंक्ति सी दिपती छिपती
कहीं दुःख के बियावान में
रह-रह कर गुनगुना रही थीं
तुम सुगन्ध सी
धीरे-धीरे फैल रही थीं
अन्तराल में
टंकी हुई स्मृति में
अब तक --
बिना हवा के
झूम रही थी नीम
छांव में सोती दुपहर
गहरी-गहरी थाप
पड़ रही थी अम्बर पर।