गहरी पर्त्त-पड़ी,
मेरे हृदय-कमल के दल पर;
कीचड़ की पपड़ी।
मन में लीन विकल्प तरुणतर,
होते मूर्त्त अनेक रूप धर,
साँस धुएँ के बादल बन कर,
जाती किधर उड़ी?
होता क्षण में कल्प विभासित,
और कल्प में क्षण उपलक्षित,
सुख के तरु पर जिसमें चर्चित,
दुख की लता चढ़ी।
करती विहरण वन-उपवन में,
एक सुमन से अन्य सुमन में,
गन्ध-भँवर के अवर्त्तन में,
मेरी मन-भ्रमरी।
(10 जनवरी, 1974)