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ग़रीबों का सेब-अमरूद / रंजना जायसवाल

फलों का राजा भले हो आम
मुझे भाते हैं अमरूद
हरे -पीले,लाल-चितकबरे
लंबे,गोल,बड़े,छोटे
सफ़ेद,पीले या लाल गुदे वाले
थोड़े कड़े,थोड़े फूले,अधपके अमरूद
इलाहाबादी हो या देशी
बारहमासी या मौसमी
अमरूद तो होते हैं बस अमरूद।
बचपन में कहाँ बचने पाते थे पूरी तरह जवान होने तक
बाग-बगीचे,आस-पड़ोस के पेड़ों पर अमरूद
बंदरों से पहले ही टूट पड़ती थी बच्चों की टोली
हर रोज गाली- मार खाकर भी कहाँ भूल पाते थे अमरूद
होते भी थे हर घर के अगवाड़े-पिछवाड़े
अमरूद वैसे ही जैसे हिमाचल पर सेब
शहरों में कहाँ जगह कि लगाएँ लोग अमरूद
वृक्षारोपण कार्यक्रम में भी नहीं किए गए शामिल
तरस जाता है मन सीजन में भी अमरूदों के लिए
केदारनाथ सिंह को भी खूब भाते हैं अमरूद
एक दिन जाते हुए मित्र हरिहर सिंह के घर
ललक उठे धर्मशाले पर बिकते देख अमरूद
लपक कर खरीद लिया एकाध किलों
दो को कटवाकर लगवाया नमक
एक को मुझे थमाते दूसरे को खाते
मुग्ध भाव से बोले –‘आहा,कितने अच्छे लगते हैं अमरूद ‘
डां० देवराज के फ्रिज में तो पड़े ही रहते थे
एकाध अमरूद
कहते -बुढ़ापे का यौवन होता है अमरूद
सोचती हूँ क्या हो सकता है कोई ऐसा भी
जिसे न भाते हों
सस्ते,सुपाच्य,स्वादिष्ट अमरूद
फिर क्यों घटते जा रहे हैं वे
बच्चों में बचपने की तरह
जिसकी पत्तियाँ खाकर जानवर मुस्कुराएँ
फल खाकर बूढ़े,बच्चे,जवान
जो दावा,दुआ और सेहत बन जाए
क्यों हुआ उपेक्षित लोक संस्कृति की तरह
डरती हूँ कहीं मेरे भीतर ही न
बचा रह जाए सिर्फ
गरीबों का सेब अमरूद।