ग़लत हाथ के हथियारों ने-
क़लम कर दिया,
छाँवदार बूढ़े रूखों को!
ठूँठ खड़े, कंधों पर जिनके
लिए लोथड़े बैठी चीलें,
हवा प्रेतबाधाओं जैसी
सूख गईं नीली जल-झीलें;
आम सभा पहरेदारों ने-
महायज्ञ-सा
इस्तेमाल किया सूखों को!
बाम अंग लकवे के मारे
दाएँ जिसे घसीट रहे हैं,
आगत बंधु! अधर में लटके
अपना माथा पीठ रहे हैं;
पत्र पठाए हरकारों ने-
गलत पते पर
घर बैठे अंधे भूपों को!
जिनके हाथों की गोटी हम
फर्जी वे, कल तक थे प्यादे,
महाकाल के दर्पण में ये
आदम के क़द से भी आधे;
मझधारे इन मल्लाहों ने-
जलसमाधि दी,
अपने ही इन प्रतिरूपों को!