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ग़ालिब /गुलज़ार

रात को अक्सर होता है,परवाने आकर,
टेबल लैम्प के गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं
सुनते हैं,सर धुनते हैं
सुन के सब अश'आर गज़ल के
जब भी मैं दीवान-ए-ग़ालिब
खोल के पढ़ने बैठता हूँ
सुबह फिर दीवान के रौशन सफ़हों से
परवानों की राख उठानी पड़ती है .