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ग़ालिब शराब छूटती नहीं / नरेन्द्र जैन

मिर्ज़ा ग़ालिब मुआफ़ करें

आज बैंगलौर के एक शराबघर में,
जिसका नाम 'वसुन्धरा' है (जाने अनजाने
शराब के अनुकूल ही है यह नाम)
मैंने एक वृद्ध स्त्री को शराब पीते हुए देखा

उम्र लगभग सत्तर वर्ष, कन्नड़ में उसने
अपनी पसन्दीदा स्थानीय शराब की माँग की
और अपने आँचल की ओट करते हुए
वहीं खड़े-खड़े बग़ैर पानी मिलाए शराब पी

जाने क्यों इस दृश्य को देखते-देखते
गुज़िश्ता दौर के कुछ हमप्याला और
हमनिवाला मुझे याद आ गए

हमप्यालाओं की फ़ेहरिस्त कुछ
ज़्यादा ही लम्बी है
इतनी विस्तृत कि घेर रखे हैं उसने तमाम कालखण्ड
और कितने ही शहर - क़स्बे
हालाँकि कमज़ोर याददाश्त के चलते
छूट ही जाते हैं कुछ चेहरे
कुछ ठाँव, कुछ ठीये

एक दिन गुज़रा था मैं 'मद्दाह' के
उर्दू - हिन्दी कोष से
ज़र्द पड़ चुके पन्नों से गुज़रते-गुज़रते
जैसे किसी इजलास से आती आवाज़ें सुनाई दीं
मिर्ज़ा ग़ालिब हाज़िर हो
मीर तकी मीर हाज़िर हो
ताज भोपाली हाज़िर हो
कैफ़ भोपाली हाज़िर हो
हाज़िर हो साहिर और मजाज़
निराला और उग्र
राजकमल और विश्वेश्वर
नीलकान्त और शलभ श्रीराम
हाज़िर हो
वहाँ उर्दू कोष में शराब से मुताल्लिक
लम्बी फ़ेहरिस्त थी
मसलन, रिन्द, रिन्दपेशा, रिन्दमज़हब
रिन्देखुशऔक़ात, रिन्देपार्सा, रिन्देबलानोश
रिन्दे शाहिदबाज़

शराबकश, शराबज़दा, शराबेकोहन
शराबे ख़ानाख़राब, शराबे ख़ानासाज़
बादाकश, बादाखोर, बादाख़्बार, बादागुसार
बादाचश, बादानोश, बादापरस्त, बादाफ़रोश
बादा-ब-जाम, बादा ब लब
बाद-ए-अर्गवानी, बाद-ए-अहमरी, बाद-ए-आतशीं
बाद-ए-इश्क़, बाद-ए-कुहन, बाद-ए-गुलफ़ाम
बाद-ए-तल्ख़, बाद-ए-दोशीना
बाद-ए-लालाफ़ाम और बाद-ए-शौक़
सच तो ये है कि जी किया
दोस्तों में कौन शराबज़दा है
कौन रिन्दपार्सा, कौन रिन्देबलानोश
कौन रिन्देखुशऔक़ात और कौन
बादापरस्त है यह पता लगाया जाए

नागपुर में हुआ था सफ़र जो विनायक के
साथ शुरू
भोपाल में उसका एक संक्षिप्त अध्याय लिखा गया
राजेन्द्र शर्मा के साथ
मोहल्ला तलैया से लेकर बैरागढ़ की किसी
जूनी बैरक की जानिब

एक दिन भरे जा रहे थे तीन गिलास
मेरे और अपने गिलास में राजेन्द्र
सही मिकदार में डाल रहा था पानी
और तीसरा गिलास विष्णु खरे का था
जिसे पानी की दरकार न थी
हम कर रहे थे याद छिन्दवाड़ा,
मुलताई, परासिया और पातालपानी को
और पुराने भोपाल की टोलीवाली मस्ज़िद वाले
मेरे उजाड़ कमरे में होते थे हर शाम नमूदार
वेणुगोपाल, राजेश जोशी, त्रिलोचन
और ताज भोपाली जिन्होंने कर रखा था
उर्दू में दर्ज अपना एक-एक शेर
मेरी एक-एक कविता के बरक्स

यहाँ याद आता है भोपाल का सत्तर का दौर
और वह घर फज़ल ताबिश का
जहाँ मिल ही जाया करता था कमोबेश
ज़िन्दगी के सवालों का जवाब
उस बेनियाज़ घर में जहाँ रहते थे वे
और लकड़ी के ज़ीने से चढ़कर वहाँ
जाया जाता था,
लगभग दुनिया जहान की हलचल
वहाँ मची ही रहती
एक निहायत ही लम्बे - चौड़े कमरे में
एक निहायत ही पुरानी दरी पर
अलग अलग कोने में कहीं
कैफ़ भोपाली बैठा करते, कहीं
ताज भोपाली
और उनके इर्द-गिर्द उनके शेरों के
तलबग़ार
वहाँ जो आता अमूमन अपनी-अपनी
शराबें लेकर आता
पानी, अलबत्ता, वहीं मिल जाया करता
वहीं भीतर बावर्चीखाने में देग में लगातार
पका करता गोश्त
फ़ज़ल ताबिश हाँक लगाते, 'क्यों खाँ,
गोश्त पक चुका या नहीं'

जब ज़िक्र उठा है तो सनद रहे ताकि वक़्त
ज़रूरत काम आए कि पहले पहल
शराब का क़ायदा और सलीका सीखा
यारों ने मंगलेश डबराल से
देर तक मंगलेश अपने रूमाल से
काँच के प्याले साफ़ किया करते
और बेहद सधे हाथों से डालते थे उनमें 'जिन'
काग़ज़ का रैपर हटाकर नई ब्लेड से काटते थे
नीम्बू के कतरे और आख़िर में बर्फ़ डालकर
करते थे पेश निहायत ही खुलूस से

शराब के साथ मंगलेश का यह बरताव
शराब को आदिकाल से पी जा रही शराब
का दर्ज़ा देता था
ख़ूबी उसकी यह थी कि उसके सुरूर में
यकसाँ मिला रहता था मंगलेश की कविता
का सुरूर भी

हालाँकि शराब रहेगी हमेशा शुक्रगुज़ार विनय दुबे
और नवीन सागर की
जो पीते थे और जानते थे शायद ही
लाए रंग ये फाक़ामस्ती किसी दिन
देरआयद, दुरुस्त आयद, कम्बख़्त
एक शख़्स अब भी ज़ेहन में प्रकट हो रहा
वह एक अखिल पगारे जिसकी भावभूमि पर
गोया कभी अस्त नहीं होगा शराब का सूर्य

यहाँ आता है मद्यप को याद
छायाकार अशोक माहेश्वरी
जिसका डार्करूम रहा बरसों तक एक पड़ाव जहाँ शाम गए
गिलासों में गिरता रहता था
द्रव्य, ख़ामोशी में, बस, इसी गिरते रहना का एक शब्द
हुआ करता था

क्या तुमने गुज़ारी है कोई शाम
शलभ, नीलकान्त, रमेश रंजक, विश्वेश्वर
वीरेन डंगवाल और नीलाभ जैसे लेखकों के संग ?
अगर नहीं गुज़ारी तो लगभग ठीक ही किया
क्या तुम वाक़िफ़ हो कृष्ण कल्पित की कविताओं से
जिन्हें पढ़ते हुए तुम्हें लग सकता है
कि तुम शराब पी रहे हो ?
अगर नहीं हो तो तुम्हें एकबारगी
उन कविताओं को पढ़ना चाहिए
संस्मरणों की अपनी क़िताब में जिसका
नाम 'ग़ालिब छुटी शराब' रखा गया है
करते हैं दावा रविन्द्र कालिया कि
छूट ही गई आख़िरकार शराब

यह भी सम्भव है कि
शराब को ही दुरुस्त न लगी हो
रविन्द्र कालिया की सोहबत
औा उसी ने लेखक से तौबा कर ली हो

जो इस बिरादरी में आते-जाते रहे
उनमें दिवंगत सोमदत्त, मुकुट बिहारी सरोज,
अलखनन्दन एवं वेणुगोपाल, सुधीर सक्सेना, अनिल गोयल, जितेन्द्र
दिवेचा, देवीलाल पाटीदार, बसन्त त्रिपाठी, महेन्द्र गगन, ध्रुव शुक्ल और
आनन्दपुर के रामभरोसे का ज़िक्र छूटा ही जा रहा
और जिन्होंने तौबा कर ली है
उनका ज़िक्र ही क्या ?

मैं कहूँगा
मुझसे
पूछा जाएगा
तो कहूँगा कि विवादग्रस्त
धार्मिक स्थल को एक गोदाम में बदल दो
और अनाज से भर दो उसे

मैं कहूँगा
एक पाठशाला प्रारम्भ कर दो वहाँ
या खोल दो
खैराती अस्पताल

मैं कहूँगा
थके - हारे यात्रियों के लिए
बना दो उसे रैनबसेरा

खोल दो
वहाँ एक छापाखाना
और अख़बार निकलने दो

लेकिन मैं जानता हूँ
आमादा हैं कुछ लोग
मस्जिद को मन्दिर और
मन्दिर को मस्जिद बनाने को

जानता हूँ मैं
धर्म अब वह दलाल है
जो सीधे सत्ता के कोठे
तक ले जाता है ।

 1994