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ग़ुबार शाम-ए-वस्ल का भी छट गया / शाहीन अब्बास

ग़ुबार शाम-ए-वस्ल का भी छट गया
ये आख़िरी हिजाब था जो हट गया

हुज़ूरी-ओ-ग़याब में पड़ा नहीं
मुझे पलटना आता था पलट गया

तिरी गली का अपना एक वक़्त था
इसी में मेरा सारा वक़्त कट गया

ख़याल-ए-ख़ाम था सो चीख़ उठा हूँ फिर
मिरा ख़याल था कि मैं निमट गया

हमारे इंहिमाक का उड़ा मज़ाक़
वही हुआ ना फिर वरक़ उलट गया

बजा कि दोनों वक़्त फिर से आ मिले
मगर जो वक़्त दरमियाँ से हट गया