शहर बीच गाँधी चौराहे
जाने किसकी लाश पड़ी है ।
बिन देखे ही ज़हर उगलते
सर्र- फर्र हैं लोग गुज़रते
बाबा की पथराई आँखें
झुर्र हाथ में गली छड़ी है ।
हलवाई की मंद गिराकी
लाश खा रही गाली माँ की
सम्वेदन के उन्मूलन को
संकल्पित यह सदी खड़ी है ।
काम बहुत मुंसीपल्टी को
टैक्स, दण्ड, सौ झंझट जी को
कब्ज़ा, नालिश, पालिश, पानी
काग़ज़- पत्तर, गड़ी- गड़ी है ।
लोकतन्त्र का सुस्त प्रशासन
पुलिस व्यवस्था फूटा बासन
न्याय-वृक्ष के हरे तने पर
राजनीति की कील गड़ी है ।