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गाँवोॅ के हवा / अचल भारती

सुनै छियै कहियो गाँवोॅ के हवा
बड़ी उदार छेलै !
महाँकोॅ सें करै छेलै गमगम,
आरो ओकरा सें टपकै दुलार छेलै !
तही लेॅ उछलैनें छेलै
चारो दिसें नें गांवोॅ के रीति-रेवाज !
आरो कवि सिनी
दौड़ी-दौड़ी ऐलोॅ छेलै गाँव में
अखनी वहेॅ गाँव छेकै !
गाँवोॅ के हवा बीमार छै,
शहरोॅ सें ऐलोॅ सब कुछ उधार छै !
लोगोॅ के आगूं लाज बेकार छै,
आरो कवि छै कि आरी पर बैठी केॅ
गाय-गाय झुम्मर में खोजै संसार छै !