फिर रहीं पगली हवाएँ
गाँव है वीरान
सुन रही हैं कटघरों में
बंद आवाज़ें
चीख़ती सुनसान में
जो लुट रहीं लाजें
सीखचों के पार फैले
राख के मैदान
हर हथेली में गड़ी हैं
बेरहम कीलें
उड़ रहीं हैं घरों पर से
बेझिझक चीलें
जली फ़सलें देखकर हैं
काँपते खलिहान
डरी झीलें देखतीं
उलटी पड़ी नावें
सोचते जल
इस व्यथा को कहाँ ले जावें
दूर तक है घूरता
हैरान रेगिस्तान