डूब सूरज गया दोपहर का
चाँदनी भी विदा हो गई।
रात अँधेरी न घर तेल-बाती
तनहा कटतीं न काटे ये रातें
लद गईं दर्द की मारी पलकें
नींद जैसे हवा हो गई।
टूटे दर्पन की तीखी दरारें
जिन पे उँगली फिराती हैं सुधियाँ
घाव फिर-फिर हरे हो रहे
गाँस खंजरशुदा हो गई।
मील-पत्थर-सा ऐसा क्या जीना
खंडहर-मौत क्या मर न पाए
रोज ज़िंदा दफ़न करती अपना
ज़िन्दगी खुद सज़ा हो गई।
नाव कागज़ की ओ, खेनेवाले!
सिर्फ़ वादे ही भारी लगे क्यों?
आँसू दिल के धुआँ हो गए
साँस जलती चिता हो गई।