एक बुझा बुझा सा
चूल्हा था
और चंद ख़ाली बरतन
कुछ टूटे फूटे सपने थे
और दरके दरके से तन
लेकिन गांव में अपने भैया
आपस में था अपनापन
खाट के नीचे
कुत्ता बैठा रहता था
वो भी मेरे जैसा
भूखा प्यासा होता था
पानी से बिस्कुट
खाया करते थे
दोनों पेट को
समझाया करते थे
यही था अक्सर
अपने दिन का भोजन
लेकिन गांव में अपने भैया
आपस में था अपनापन
बीड़ी-सीडी पीते रहते थे
सतुआ-मठ्ठा घुलते रहते थे
फ़ाक़ा मस्ती होती रहती थी
ताश के पत्ते फिटते रहते थे
और लड़ जाते थे
कलुआ से जुम्मन
लेकिन गांव में अपने भैया
आपस में था अपनापन
शहर में बरसों रहकर भी
अपना ना सका
सांझ-सवेरे सब एक किये
रिश्ता कोई बन ना सका
शहर में आके खो गया सब
गांव का सारा अपनापन
उम्मीदों से बड़ी ना देखी
हमने कोई खोजन
लेकिन गांव में अपने भैया
आपस में था अपनापन ॥