गांव में जन्में
और शहर में बसे
हम जैसे लोग
डार से बिछुड़ी
चिरइया होते हैं।
चिरइया कितना भी
पेट भर खा ले
रह रह कर
खोजने लगती है
अपनी डार।
कल जब
बारिश की उदात्त बूंदें
मेरी खिड़की के सामने
बिछी छत पर
गिर रही थीं
मेरे मन के एक
अंधियारे कोने में खड़े
विशाल बरगद के पत्तों से
कुछ फिसल-फिसल कर
मेरी देह पर गिर रहा था
टप्प टप्प-टप्प टप्प।
मेरी खिड़की से
नहीं दिखाई पड़ता
एक भी बरगद का पेड़
मेरे पैरों के नीचे
न बरसात की नमी है
न मिट्टी.
कल एक गौरैया
जाने कहाँ से
भटकती हुई
मेरी बालकनी में
आकर बैठ गई
डार और मिट्टी के बिना
बड़ी अजीब
लग रही थी वो
बिल्कुल हमारी तरह
बेघर, बेबस।
अच्छा हुआ
नई पीढ़ी ने
डार और मिट्टी नहीं देखी
आंगन नहीं देखा
बरगद की जड़ों से
झूलते बच्चे नहीं देखे
और नहीं देखा
डार पर बैठी चिरइया
नहीं तो कभी
मचल पड़ता
अगर उनका मन
मिट्टी की गंध के लिए
खुले आकाश के लिए
टिमटिमाते तारों के लिए
तो हम जैसे बेबस लोग
कहाँ से लाते वह बिछुड़ी दुनिया
और उसके अजूबे।
लकड़ी से बने
खिड़की के पल्ले पर
अभी-अभी
एक चिरइया बैठ गई है
सोच रही
कहीं ये उसकी
वही कटी हुई डार तो नहीं।