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गाओ / महेन्द्र भटनागर

गाओ कि जीवन गीत बन जाए !

हर क़दम पर आदमी मजबूर है,
हर रुपहला प्यार-सपना चूर है,
आँसुओं के सिन्धु में डूबा हुआ
आस-सूरज दूर, बेहद दूर है,

गाओ कि कण-कण मीत बन जाए !

हर तरफ़ छाया अँधेरा है घना,
हर हृदय हत, वेदना से है सना,
संकटों का मूक साया उम्र भर
क्या रहेगा शीश पर यों ही बना ?

गाओ, पराजय — जीत बन जाए !

साँस पर छायी विवशता की घुटन
जल रही है ज़िन्दगी भर कर जलन
विष भरे घन-रज कणों से है भरा
आदमी की चाहनाओं का गगन,

गाओ कि दुख संगीत बन जाए !