ओ सागर !
तुम गाते रहो निरन्तर !
तुम्हारा जीना
ऐसा जीना हो
कि संगीतबद्ध हो
आँखें भी गा-गाकर देखती हों
हाथ लहराते हुए ताल देते हों
पग लयबद्धता में गतिमान हों
सुर भावाकुलता से आविष्ट होकर निकलें
हवा में फैल जाए स्वर
और आप्लावित कर दे धरती-आकाश !