मौत का सैलाब
खून से लथ-पथ लाशें
और उसमें पका हुआ भात
लाशें सात...
सात हज़ार!
रोज़ के रोज़
यही होता है
ये सत्ता के भूखे गीदड़
रचते हैं रोज़
नई-नई व्यूह-रचना
इंसानों के खून से
पका भात खाने को
गारुड़ मंत्र के कवि
तुम इन तांत्रिकों की
चपेट में आने से
नहीं बच सके
अब तुम्हारी याद शेष है
लिली टाकीज़ के पास
रैलिंग पकड़े
ताल के पानी को
निहारते हुए
तालाब में मछलियाँ
तैरती हैं बेआवाज़
ठहरे हुए पानी में
उठ रही हैं सड़ाँध
है आदमी बेजान
मछलियों की तरह
तड़पता है
बेआवाज़
सत्ता का ज्वर
अब भी चढ़ा है वैसा ही
पीपल के पेड़ में
कीलें ठोंककर
मनौतियाँ माँगी हैं
लोगों ने
आएगा एक दिन
बसंत का मौसम
चिड़ियों की बीट से
गँदला गए हैं पत्ते
हम अपना अस्तित्व
भूल गए हैं।
कवि अनिल कुमार के लिए