भील लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
काकड़ी नो वेलों, खड़ो-खड़ो वाजे।
याहिणिंक ढुके ते, घमघुले वाजे।
बेनो निहिं मान्यो ने, भिलड़ा मा लायो।
बेनो निहिं मान्यो ने, दात्याला मा लायो।
बेनो निहिं मान्यो ने, डाहवाला मा लायो।
बेनो निहिं मान्यो ने, ढुमाला मा लायो।
बेनो निहिं मान्यो ने, दारूड्या मा लायो।
- ककड़ी का वेला खड़-खड़ बज रहा है, समधन को ठोकें तो धमाधम आवाज आ रही है। बना नहीं माना अपनी मर्जी से लाड़ी पसंद की और ‘भिलड़ो’ में ले आया अर्थात्व्य वहार अच्छा नहीं है। बना नहीं माना, दाता-कच्ची करने वालों में ले आया। घमंडियों में ले आया। धूम करने वाले (घमंडियों) में ले आया, दारू पीने वालों में ले आया।