गिद्ध कर रहे यह चिन्तन,
अब अपनी सकल सभाओं में।
जीवन सम्भव नहीं कहीं,
जंगल, नगरों या गाँवों में।
घबराकर अधिकांश स्वजन
सदियों पहले जंगल छोड़े।
असुरक्षा का भाव जगा
नगरों से भी नाता तोड़े।
गाँव सर्वदा प्रिय लगते थे
हम सबकी आवादी को
लेकिन आज यहाँ पर भी
गोधन हैं बचे हुये थोड़े।
मरी देह को क्षुधा खोजती
उड़कर सर्व दिशाओं में।
जीवन सम्भव नहीं कहीं,
जंगल, नगरों या गाँवों में।
धधक रही मानवी तृषा में
अति प्रचण्ड है निर्दयता।
निगल रही है जीव जगत
जलती नैसर्गिक सुंदरता।
गिद्ध कौन? यह प्रश्न भला
आसुरी शक्ति से कौन करे!
एक ओर हम निर्बल पक्षी
एक ओर अतुलित क्षमता।
आग लगे! गिद्धों के प्रति
जन-जन के कटु दुर्भावों में।
जीवन सम्भव नहीं कहीं,
जंगल, नगरों या गाँवों में।
अंतसमय ललकार रहा!
सबके सम्मुख यह प्रश्न विकट।
विलख रहे निरुपाय, टले
कैसे ऐसा भीषण संकट।
यदि मनुजों के सङ्ग हमारा
जीना तनिक न हो सम्भव
निज चिन्ता को वसुधा पर,
किसके समक्ष हम करें प्रकट?
मानव निर्मित गरल भरा
जल, भोजन और हवाओं में।
जीवन सम्भव नहीं कहीं,
जंगल, नगरों या गाँवों में
गिद्ध कर रहे यह चिन्तन,
अब अपनी सकल सभाओं में।
जीवन सम्भव नहीं कहीं,
जंगल, नगरों या गाँवों में।