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भरत भए ठाढ़े कर जोरि |
ह्वै न सकत सामुहें सकुचबस समुझि मातुकृत खोरि ||
फिरिहैं किधौं फिरन कहिहैं प्रभु कलपि कुटिलता मोरि |
हृदय सोच, जलभरे बिलोचन, नेह देह भै भोरि ||
बनबासी, पुरलोग, महामुनि किए हैं काठके-से कोरि |
दै दै श्रवन सुनिबेको जहँ तहँ रहे प्रेम मन बोरि ||
तुलसी राम-सुभाव सुमिरि, उर धरि धीरजहि बहोरि |
बोले बचन बिनीत उचित हित करुना-रसहि निचोरि ||