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बहुरो भरत कह्यो कछु चाहैं |
सकुच-सिन्धु बोहित बिबेक करि बुधि-बल बचन निबाहैं ||
छोटेहुतें छोह करि आए, मैं सामुहैं न हेरो |
एकहि बार आजु बिधि मेरो सील-सनेह निबेरो ||
तुलसी जो फिरिबो न बनै, प्रभु तौ हौं आयसु पावौं |
घर फेरिए लषन, लरिका हैं, नाथ साथ हौं आवौं ||