(78)
प्रभुसों मैं ढीठो बहुत दई है |
कीबी छमा, नाथ! आरतितें कही कुजुगुति नई है ||
यों कहि, बार बार पाँयनि परि, पाँवरि पुलकि लई है |
अपनो अदिन देखि हौं डरपत, जेहि बिष बेलि बई है ||
आए सदा सुधारि गोसाईँ, जनतें बिगरि गई है |
थके बचन पैरत सनेह-सरि, पर्यो मानो घोर घई है ||
चित्रकूट तेहि समय सबनिकी बुद्धि बिषाद हई है |
तुलसी राम-भरतके बिछुरत सिला सप्रेम भई है ||