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आली! हौं इन्हहिं बुझावौं कैसे ?
लेत हिये भरि भरि पतिको हित, मातुहेतु सुत जैसे ||
बार-बार हिहिनात हेरि उत, जो बोलै कोउ द्वारे |
अंग लगाइ लिए बारेतें करुनामय सुत प्यारे ||
लोचन सजल, सदा सोवत-से, खान-पान बिसराए |
चितवत चौङ्कि नाम सुनि, सोचत राम-सुरति उर आए ||
तुलसी प्रभुके बिरह-बधिक हठि राजहंस-से जोरे |
ऐसेहु दुखित देखि हौं जीवति राम-लखनके घोरे ||