(6).
रागसोरठ
रघुबर दूरि जाइ मृग मार्यो |
लषन पुकारि, राम हरुए कहि, मरतहु बैर सँभार्यो ||
सुनहु तात! कोउ तुम्हहि पुकारत प्राननाथकी नाईं |
कह्यो लषन, हत्यो हरिन, कोपि सिय हठि पठयो बरिआईं ||
बन्धु बिलोकि कहत तुलसी प्रभु भाई! भली न कीन्हीं |
मेरे जान जानकी काहू खल छल करि हरि लीन्हीं ||