(11).
रागसोरठ
जबहि सिय-सुधि सब सुरनि सुनाई |
भए सुनि सजग, बिरहसरि पैरत थके थाह-सी पाई ||
कसि तूनीर-तीर धनु-धर-धुर धीर बीर दोउ भाई |
पञ्चबटी-गोदहि प्रनाम करि, कुटी दाहिनी लाई ||
चले बूझत बन-बेलि-बिटप, खग-मृग, अलि-अवलि सुहाई |
प्रभुकी दसा सो समौ कहिबेको कबि उर आह न आई ||
रटनि अकनि पहिचानि गीध फिरे करुनामय रघुराई |
तुलसी रामहि प्रिया बिसरि गई, सुमिरि सनेह-सगाई ||