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रघुबर अँचै उठे, सबरी करि प्रनाम कर जोरि |
हौं बलि बलि गई, पुरई मञ्जु मनोरथ मोरि ||
पुरई मनोरथ, स्वारथहु परमारथहु पूरन करी |
अघ-अवगुनन्हिकी कोठरी करि कृपा मुद मङ्गल भरी ||
तापस-किरातिनि-कोल मृदु मूरति मनोहर मन धरी |
सिर नाइ, आयसु पाइ गवने, परमनिधि पाले परी ||
सिय-सुधि सब कही नख-सिख निरखि-निरखि दोउ भाइ |
दै दै प्रदच्छिना करति प्रनाम, न प्रेम अघाइ ||
अति प्रीति मानस राखि रामहि, राम-धामहि सो गई |
तेहि मातु-ज्यों रघुनाथ अपने हाथ जल-अंजलि दई ||
तुलसी-भनित, सबरी-प्रनति, रघुबर-प्रकृति करुनामई |
गावत, सुनत, समुझत भगति हिय होय प्रभु पद नित नई ||