(9)
रामकी वियोग-व्यथा
हेमको हरिन हनि फिरे रघुकुल-मनि,
लषन ललित कर लिये मृगछाल |
आश्रम आवत चले, सगुन न भए भले,
फरके बाम बाहु, लोचन बिसाल ||
सरित-जल मलिन, सरनि सूखे नलिन,
अलि न गुञ्जत, कल कूजैं न मराल |
कोलिनि-कोल-किरात जहाँ तहाँ बिखात,
बन न बिलोकि जात खग-मृग-माल ||
तरु जे जानकी लाए, ज्याये हरि-करि-कपि,
हेरैं न हुँकरि, झरैं फल न रसाल |
जे सुक-सारिका पाले, मातु ज्यों ललकि लाले,
तेऊ न पढ़त न पढ़ावैं मुनिबाल ||
समुझि सहमे सुठि, प्रिया तौ न आई उठि,
तुलसी बिबरन परन-तृन-साल |
औरे सो सब समाजु, कुसल न देखौं आजु,
गहबर हिय कहैं कोसलपाल ||