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राग केदारा
मनमें मञ्जु मनोरथ हो, री !
सो हर-गौरि-प्रसाद एकतें, कौसिक, कृपा चौगुनो भो, री !||
पन-परिताप, चाप-चिन्ता निसि, सोच-सकोच-तिमिर नहिं थोरी |
रबिकुल-रबि अवलोकि सभा-सर हितचित-बारिज-बन बिकसोरी ||
कुँवर-कुँवरि सब मङ्गल मूरति, नृप दोउ धरमधुरधर धोरी |
राजसमाज भूरि-भागी, जिन लोचन लाहु लह्यो एक ठौरी ||
ब्याह-उछाह राम-सीताको सुकृत सकेलि बिरञ्चि रच्यो, री |
तुलसिदास जानै सोइ यह सुख जेहि उर बसति मनोहर जोरी ||