(77)
नेकु, सुमुखि, चित लाइ चितौ, री |
राजकुँवर-मूरति रचिबेकी रुचि सुबिरञ्चि श्रम कियो है कितौ, री ||
नख-सिख-सुदंरता अवलोकत कह्यो न परत सुख होत जितौ, री |
साँवर रुप-सुधा भरिबे कहँ नयन-कमल कल कलस रितौ, री ||
मेरे जान इन्हैं बोलिबे कारन चतुर जनक ठयो ठाट इतौ, री |
तुलसी प्रभु भञ्जिहैं सम्भु-धनु, भूरिभाग सिय मातु-पितौ, री ||