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स्ुजन सराहैं जो जनक बात कही है।
श्रामहि सोहानी जानि, मुनिमनमानी सुनि,
नीच महिपावली दहन बिनु दही है।1।
कहैं गाधिनंदन मुदित रघुनंदनसों,
नृपगति अगह, गिरा न जाति गही है।
देखे-सुने भूपति अनेक झूठे झूठे नाम,
साँचे तिरहुतिनाथ, साखि देति मही है।2।
रागऊ बिराग, भोग जोग जोगवत मन,
जोगी जागबलिक प्रसाद सिद्धि लही है।
ताते न तरनितें न सीरे सुधाकरहू तें,
सहज समाधि निरूपाधि निरबही है।3।
ऐसेउ अगाध बोध रावरे सनेह-बस,
बिकल बिलोकति, दुचितई सही है।
कामधेनु-कृपा हुलसानी तुलसीस उर,
पन-सिसु हेरि, मरजाद बाँधी रही है।4।